संस्कृतदिवसस्य हार्दाः शुभेच्छाः
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संस्कृतं नाम दैवी वाग् अन्वाख्याता महर्षिभिः॥
संस्कृत एक महान भाष्य है जो महान हस्तियों द्वारा
ऊं आधार शक्तपे नमः
ऊं कूमयि नमः
ऊं अनंतम नमः
ऊं पृथिव्यै नमः
ऊं श्री सृष्टतनया सर्वसिद्धया विश्वकर्माया नमो नमः
गजाननाय महसे प्रत्यूहतिमिरच्छिदे ।
अपारकरुणापूरतरङ्गितदृशे नमः ॥
विघ्नरूप अन्धकार का नाश करनेवाले, अथाह करुणारूप जलराशि से तरंगति नेत्रों
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे ||
namastē sadā vatsalē mātṛbhūmē .
हे वात्सल्यमयी मातृभूमि, तुम्हें सदा प्रणाम!
O Loving Motherland!
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् |
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ||
इस पूरे संसार के पालनहार, तीन नेत्र वाले
सर्वसुगन्धिसुलेपितलिंगम् बुद्धिविवर्द्धनकारणलिंगम्।
सिद्धसुरासुरवन्दितलिंगम् तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्॥
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो सभी प्रकार
न किञ्चिदपि कुर्वाणः सौख्यैर्दुःखान्यपोहति।
तत्तस्य किमपि द्रव्यं यो हि यस्य प्रियो जनः॥
अपनों के हेतु बिना कुछ किये
मा वनं छिन्धि सव्याघ्रं मा व्याघ्राः नीनशन्वनात्
वनं हि रक्ष्यते व्याघ्रैव्य्घ्रान् रक्षति काननम्।।
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Source ~ महाभारत - उद्योगपर्व:
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बाघ
उग्रायोग्रास्वरूपाय यजमानात्मने नमः।
महाशिवाय सोमाय नमस्त्वमृत मूर्तये ॥
हे उग्ररूपधारी यजमान सदृश आपको नमस्कार है ।
सोमरूप अमृतमूर्ति हे
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते।।
धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब
अनाथस्य जगन्नाथ नाथस्त्वं मे न संशयः ।
यस्य नाथो जगन्नाथस्तस्य दुःखं कथं प्रभो ॥
जिनका इस दुनिया में
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।
चित्त अर्थात अन्तःकरण की वृत्तियों का निरोध सर्वथा रुक जाना योग है।
Yoga is restraining the mind-stuff
जनकश्चोपनेता च यक्ष विद्यां प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्राता पश्चैते पितरः स्मृताः।।
जन्मदाता, उपनयन संस्कारकर्ता, विद्या प्रदान करने वाला, अन्नदाता
मनोबुद्ध्यहङ्कारचित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्रणनेत्रे।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥
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परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥
सत्पुरुषों की रक्षा करने के लिए, दुष्कर्म करने वालों
महाद्रिपार्श्वे च तटे रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः।
सुरासुरैर्यक्ष महोरगाढ्यैः केदारमीशं शिवमेकमीडे॥
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।
शौर्य, तेज, धृति, दाक्ष्य (दक्षता), युद्ध से पलायन न
अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे क्योंकि आप ही अपना मित्र है और
ॐ हम जमदग्नि के पुत्र को जानते हैं। हम उस महावीर का ध्यान करते हैं। वह